1. ‘श्रीमद् भगवत् गीता’ अध्यात्मशास्त्र के साथ नीतिशास्त्र के समावेश तथा
आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन के समन्वय का अद्वितीय ग्रंथ है।
2. भेद-भाव (जाति, धर्म, पंथ, सम्प्रदाय, रंग, लिंग, देश आदि) रहित
विश्व-मानव के
कल्याण का अनुपम जीवन ग्रंथ है।
3. गीता-शास्त्र परम्परा को चलाने वाले भक्त एवं विद्वत्-समाज के लिए फल का
विधान
(श्री गीता अध्याय 18 श्लोक 68-71) करते हुए स्वयं भगवान् ने कहा है- ‘जो पुरुष
मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीता-शास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा,
जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद-रूप गीता-शास्त्र को पढ़ेगा तथा जो मनुष्य
श्रद्धायुक्त और दोष-दृष्टि से रहित इस गीता-शास्त्र का श्रवण भी करेगा, उनका
कल्याण क्रमशः प्रभु की प्राप्ति, प्रभु का ज्ञान-यज्ञ रूप पूजा तथा श्रेष्ठ लोकों
की प्राप्ति-रूप में होगा।’
4. विश्व प्रसिद्ध भारतीय एवं पाश्चात्य विचारकों, विद्वानों, वैज्ञानिकों और सन्त
महात्माओं द्वारा गीता माहात्म्य की स्वीकृति तथा उसके प्रचार-प्रसार में
यथाशक्ति-भरपूर योगदान देने के उनके सराहनीय प्रयास और कार्य स्तुत्य हैं और
प्रेरणादायक भी यथा-
भारत में ब्रिटिष शासन के प्रथम गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स (1732-1818):-
वह
गीता ग्रंथ से अत्यन्त प्रभावित थे। ‘गीता’ के सम्बन्ध में उनके विचार निम्नवत्
दृष्टव्य हैं- ‘मुझे कहने में संकोच नहीं है कि ‘गीता’ महान मौलिकता का प्रदर्शन
मानव-कल्याण के उद्भव की पराकाष्ठा और कल्पना का अप्रतिम (बेजोड़) रूप है। यह
मानव-जाति के सभी ज्ञात धर्मों के बीच एकल अपवाद है। उन्होंने यह भी कहा कि
‘हमारा
शासन रहे न रहे लेकिन श्रीगीता भारत के लोगांे के हृदय पर शासन करती रहेगी।’
उन्होंने ही सर चार्ल्स विल्किन्स (1749-1836) को ‘गीता’ के
सर्वप्रथम अंग्रेजी
अनुवाद (1785 लन्दन) के लिए प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने शीघ्र
ही यूरोपीय भाषाओं में गीता के अन्यान्य (अन्य दूसरे) अनुवादों को जन्म दिया।
सत्य
और अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (1869-1948):- कहते हैं-
मैंने कहीं
पढ़ा था कि केवल सात सौ श्लोकों में गीता ने सारे शास्त्रों और उपनिषदों का सार-गागर
में सागर-भर दिया है गीता के पढ़ने के उद्देश्य से मैने संस्कृत का अध्ययन किया।
गीता मेरा बाइबिल, कुरान ही नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष माता ही है। अपनी लौकिक माता से
तो कई दिनों से बिछुड़ा हूँ किन्तु तभी से गीता मैया ने मेरे जीवन में माता का स्थान
ग्रहण कर लिया है। आपातकाल में वही मेरा सहारा है। (वाराणसी-अभिभाषण)
विश्व
प्रसिद्ध जर्मन वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता अल्बर्ट आइंस्टीन
(1879-1955):-
अपने जीवन के प्रराम्भिक वर्षों में गीता को शामिल न कर पाने का गहरा अफ़सोस था।
उन्होंने कहा- ‘जब मैं
भगवत् गीता को पढ़ता हूँ तो बाकी सब उथला लगता है।’
इस्लामिया कालेज, लाहौर के एक विद्वान प्राचार्य ख़्वाजा दिल मोहम्मद
(1887-1961):-
इन्होंने श्रीगीता से प्रभावित होकर गीता को ‘रूहानी फूलों से बना गुलदस्ता कहा’ और
‘‘दिल गीता’’ नामक एक पुस्तक को 1944 में प्रकाशित किया। उनके अनुसार ‘यह गुलदस्ता
हजारों वर्ष बीत जाने पर भी दिन दूना रात चौगुना महकता जा रहा है। यह गुलदस्ता
जिसके हाथ भी गया, उसका जीवन महक उठा। ऐसे गीता रूपी गुलदस्ते को मेरा प्रणाम है।
सात सौ श्लोक रूपी फूलों से सुवासित यह गुलदस्ता करोड़ों लोगों के हाथ गया, फिर भी
मुरझाया नहीं।’
अमेरिकी नागरिक और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में भौतिकी के
प्रोफेसर, जे. रॉबर्ट ओपेनहाइमर (1904-1967):- जिन्हें ‘परमाणु बम के
पिता’ के रूप
में जाना जाता है, उन्होंने 1933 में संस्कृत सीखी और संस्कृत में गीता पढ़ी।
उन्होंने कहा- ‘मुझे हिन्दू शास्त्र ‘भगवत् गीता’ की वह पंक्ति याद आ रही है, जब
श्रीकृष्ण अपने विराट स्वरूप को दिखाते हुए अर्जुन से कह रहे हैं कि मैं लोकों का
नाश करने वाला महाकाल हूँ और मैं इस समय अधर्म का नाश करने के लिए प्रवृत्त हुआ
हूँ।’ उन्होंने अमेरिका के 32वें राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट के अन्तिम
संस्कार
समारोह के दौरान गीता के श्लोकों का पाठ किया।
भारतीय मनीषा के प्रकाण्ड पंडित और सुविख्यात संत स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती जी
(1911-1987):- गीता के सम्बन्ध में कहते हैं- ‘एक आचार्य कोई मजहब चलाता
है, तब यही
कहता है, कि मेरी पुस्तक पर श्रद्धा रखो, मैं जो कहता हूँ, सो करो। परन्तु गीता
कहती है-बुद्धि! बुद्धि!! बुद्धि!!! ज्ञान! ज्ञान!! ज्ञान!!! ज्ञान से ही अमृत की
प्राप्ति होती है, ज्ञान से ही बन्धन की निवृत्ति होती है, ज्ञान से ही सत्य का
साक्षात्कार होता है, गीता के सिवाय कोई ऐसा ग्रंथ जो हमारे दैनिक जीवन में हमारी
मूर्खता को दूर करे, हमारे दुःख को दूर करे, हमारे जीवन-मरण के भय को दूर करे,
हमारे शोक-मोह को दूर करे, सृष्टि में दूसरा कोई नहीं है।
सन् 1974 से 2002 के बीच चार बार तुर्की के प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार
सम्भालने वाले तुर्की राजनेता और विद्वान मुस्तफा बुलेंट एसेविट (1925-2006):-
उनसे
जब पूछा गया कि उन्हें साइप्रस में अपने सैनिकों को भेजने का साहस कैसे मिला, तो
उनका उत्तर था- ‘उन्हें भगवत् गीता से बल मिला जो सिखाती है कि यदि कोई नैतिक रूप
से सही है तो उसे अन्याय से लड़ने में संकोच नहीं करना चाहिए।’
इसके अतिरिक्त एक
बुद्धिवादी ग्रंथ होने के कारण अपनी-अपनी प्राप्त परिस्थिति में अनेक विवेकी
ज्ञान-सम्पन्न महापुरुषों ने गीता-गं्रथ के युक्ति-युक्त भाष्य, टीका, व्याख्या आदि
का प्रतिपादन करके गीता-प्रचार-प्रसार में सहभागिता की है। भारत के स्वतंत्रता
सैनानी श्री बालगंगाधर तिलक तथा इस्कॉन (ISKCON) के संस्थापक श्रील प्रभुपाद
जी ने कठिन परिस्थिति में रहकर गीता-प्रचार हेतु अपने समय में अद्वितीय
कार्य किया।
इनका दृढ़ विश्वास था कि गीता-प्रचार का हेतु मनुष्य-मात्र का कल्याण है जिसके
फलस्वरूप प्रभु के मंगलमय विधान से उसके योग-क्षेम का तो वहन होता ही है और अन्त
में उत्तम गति भी प्राप्त की जाती है।